विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ कागजों और नेताओं के चेहरे पर ही क्यों चमकता है
9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस जब पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है तब झारखंड के सुदूर गांव में महिलाएं अपने रोजमर्रा की जिंदगी के लिए मशक्कत कर रही हैं। बाजार में थोड़ा सा सामान लेकर बेचने बैठी हैं ताकि शाम को उनके बच्चों को भरपेट खाना मिल सके। महिलाओं की जिम्मेदारी है कि वह खाना बनाए भी,और खाने के लिए आमदनी का जरिया भी ढूंढे । वह धन उपार्जन में भी सहयोग करें , घर में भी सहयोग करें और बच्चों के पालन पोषण में भी सहयोग करें।
आदिवासी महिलाओं की जिंदगी के लगभग 50 से 60 साल जंगल में अपने हर दिन को कठिनाई के साथ गुजारने में ही गुजर जाते हैं । लेकिन यह जीवन भी उनके लिए कठिन नहीं होता।
यह जीवन भी उनके लिए उल्लास का वायस बनता है क्योंकि वे उस कठिनाई में भी खुशी ढूंढ लेती हैं । जो व्यक्ति जैसा जीवन जी रहा है उसके लिए खुशी इस जीवन में कहीं ना कहीं मिल ही जाती हैं ।
दूर से देखने पर हमें लगता है यह आदिवासी कितने कठिन संघर्ष से जूझ रहे हैं लेकिन व्यवस्था में अपने जीवन के लिए किसी भी तरह की हाय तौबा से बचते हुए, जंगल में रहते हुए और प्रकृति का आनंद लेते हुए जीवन की सीमित आवश्यकताओं को पूरा करने में अपना जीवन बिता देते हैं । उनमें न तो बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, न ही बहुत कुछ पाने का लालच है। वह बस जीवन को हंसी-खुशी गुजारना चाहते हैं ।
अगर हम किसी भी आदिवासी महिला से पूछे कि वह अपने जीवन में क्या चाहती है तो उसका जवाब होगा, बस उसका बच्चा अच्छे से पढ़ लिख जाए और बड़ा आदमी बने। एक बड़ा आदमी बनने का सपना हर महिला के अंदर होता है। वे यह नहीं सोचते कि वे आदिवासी हैं, वे जंगल में रहते हैं, वे किस जाति से आते हैं । जाति, वर्ग, धर्म, सिर्फ नेताओं के लिए है ।
उनके लिए बस जीवन की मूलभूत जरूरत को पूरा करना ही मायने रखता है।
आज विश्व आदिवासी दिवस पर गोइलकेरा जंगल में बिताए कुछ सुकून के पल और उनके साथ कुछ बातें की । जीवन को थोड़ा बहुत जितना भी देखने का मौका मिला देखा, समझा और सीखा । आप भी इन महिलाओं से सीख सकते हैं धैर्य , संतोष और खुशी बशर्ते कि महत्वाकांक्षाएं आपके जीवन के सुकून को अपनी उड़ान के साथ उड़ा न दें।