एनजीओ में हिंदी भाषी लोगों के लिए अवसर समाप्त हो रहे है
भारत में 1975 के सम्पूर्ण क्रांति के बाद से हिंदी भाषी राज्यों में एनजीओ की बाढ़ आ गई थी । 1980 से 1990 दशक तक इन एनजीओ में ज्यादातर उच्च पदों पर हिंदी भाषी ही थे जिन्हें ग्रामीण पृष्ठभूमि की न सिर्फ अच्छी समझ थी बल्कि वे स्वयं गांवों से निकल कर आए थे । वर्ष 2000 के बाद एनजीओ सेक्टर में ग्रामीण विकास के नाम पर मैनेजमेंट संस्थानों से आए लोगों की मनमानी चलने लगी । समाज सेवा और ग्रामीण विकास की पढ़ाई ज्यादा होने लगी और मैनेजमेंट संस्थान से कार्यकर्त्ता एनजीओ में आने लगे जिसमें xiss, tiss, irma आदि शामिल है । यही से एनजीओ सेक्टर एक बाजार के रूप में भारत में अपनी उत्पादकता को बढ़ाने लगा ।
एनजीओ सेक्टर में मुख्य रूप से दो वर्ग के लोग काम करते है । एक वो है जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते और लिखते है दूसरा वर्ग वो है जिसके पास गांवों का पर्याप्त अनुभव तो है लेकिन वे टूटे फूटे अंग्रेजी बोलते और लिखते है । यही से इस सेक्टर में भेद भाव की शुरुआत होती है । मैनेजमेंट संस्थान से आए हुए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले लोगों ने हिंदी भाषी जमीनी कार्यकर्ताओं को हाशिए पर खड़ा कर दिया है । चूंकि अधिकतर एनजीओ के मालिक भी अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त है इसलिए भी ग्रामीण सामाजिक पृष्ठभूमि वाले हिंदी भाषी कार्यकर्त्ताओं के लिए इस सेक्टर में अब अवसर खत्म हो रहा है । हिंदी भाषी कार्यकर्त्ताओं को गांवों में भेजा जाता है और उनका काम फील्ड वर्क का ही होता है । लेकिन अंग्रेजी भाषा भाषी लोग ऑफिस के वातानुकूलित कमरों में चर्चा और परिचर्चा करते है और अपनी विद्वत्ता का बखान करते है । ये अपने आपको संभ्रांत मानते है इसलिए गांवों में ज्यादा नहीं जाते है लेकिन ऑफिस में बैठकर ही जमीनी हकीकत का खुद से आंकलन करने लगते है ।
हिंदी भाषी कार्यकर्त्ताओं की दुर्दशा के लिए फंडिंग एजैंसी जिम्मेदार है क्योंकि उनकी नजर में भी अंग्रेजी जानने वाले कार्यकर्त्ता ही विद्वान है । भारत में एनजीओ सेक्टर बहुत फलता फूलता सेक्टर है लेकिन यहां हिंदी भाषी कार्यकर्त्ता भारत के सभी राज्यों में दोयम दर्जे की मान्यता रखते है । हिंदी चूंकि भारत में सबसे ज्यादा बोले जाने वाली राष्ट्रीय भाषा है और इस भाषा के लोगों की दयनीय स्तिथि के लिए सरकार भी जिम्मेदार है । एनजीओ में भी दो गुट होते है एक हिंदी और एक अंग्रेजी वालों का गुट । अंग्रेजी कार्यकर्त्ताओं का गुट बहुत मजबूत माना जाता है क्योंकि ये लोग अपने लिए अवसरों की तलाश करते है और अपना समय समय पर क्षमता वर्धन करते है । हिंदी भाषी कार्यकर्त्ताओं के लिए अवसर न के बराबर होता है और वे गांवों में लोगों से ही सीख कर अपना व्यक्तित्व और जानकारी का विकास करते है । भविष्य में इस सेक्टर में हिंदी भाषी लोगों के लिए अवसर नहीं होगा जो कि चिंता का विषय है और भाषाई आधार पर कार्य के अवसरों का खत्म होना मौलिक आधार का उल्लंघन भी कहा जाएगा ।