हिंदी दिवस: क्या गोबर सुँघाने से मरी चुहिया (हिंदी) ज़िंदा हो पाएगी?
बचपन में हम एक खेल खेलते थे, जिसमें अगर कोई चुहिया मर गई या ऐसा लगा कि मर गई है, तो उसे गोबर सुँघाकर ज़िंदा करने की कोशिश करते थे। कहा जाता था कि अगर वह बेहोश है तो होश में आकर भाग जाएगी, और अगर मर गई है, तो फिर मर ही गई। आज की स्थिति में हिंदी भाषा की हालत भी कुछ वैसी ही है, जैसे मरी हुई चुहिया, जिसे हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर गोबर सुँघाने का प्रयास किया जाता है।
हर साल हिंदी दिवस पर कई लोग इस भाषा को बचाने के लिए निकलते हैं, मानो अगर यह बेहोश है तो इसे फिर से दौड़ा दिया जाए। लेकिन क्या कॉलोनियल मानसिकता से ग्रसित लोग, जो अपने बच्चों को सिर्फ नौकरी या क्लर्क बनने की दिशा में ले जा रहे हैं, कभी स्वतंत्र रूप से सोच पाएंगे कि हिंदी की दुर्दशा क्यों हो रही है?
हिंदी बनाम अंग्रेजी: शिक्षा और मानसिकता
आज हर हिंदी भाषी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी मीडियम में पढ़े, फिर चाहे वह सही से अंग्रेजी सीख रहा हो या नहीं। स्कूलों की ऊंची फीस भरने के बावजूद ध्यान इस पर नहीं जाता कि अंग्रेजी शिक्षा की गुणवत्ता कैसी है। यही हाल सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों का है, जो खुद अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाते हैं।
बड़े संस्थानों में जैसे रेलवे में राजभाषा विभाग के होते हुए भी हिंदी की किताबें अलमारियों में बंद पड़ी रहती हैं। कुछ कार्यक्रम और पुरस्कार वितरण कर जिम्मेदारी पूरी मान ली जाती है।
अंग्रेजी का दबदबा और हिंदी की दुर्दशा
आज अंग्रेजी को एक महत्वपूर्ण कौशल माना जाता है। अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती, तो आप रोजगार की दौड़ में पीछे रह जाते हैं। कार्यालयों में आपको इस तरह देखा जाता है, जैसे अंग्रेजी न जानकर आप कोई अपराध कर रहे हों, चाहे आप अपने काम में कितने ही कुशल क्यों न हों।
अगर यही स्थिति रही, तो मरी चुहिया (हिंदी) गोबर सुँघाने से भी नहीं दौड़ेगी।